भारतीय समाज में नारी- भारतीय साहित्य

जैन और बौद्ध धर्म को ‘ब्राह्मण संस्कृति’ की तुलना में ‘श्रमण संस्कृति’ कहा जाता है। ब्राह्मण-वैदिक धर्म में कर्मकांडों की जटिलता ने, मृत्योंपरांत स्वर्ग और अपवर्ग की आकांक्षा ने ब्राह्मण वर्ग को अतिविशिष्ट बना दिया था। अपने को और अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए उन्होंने अपने ज्ञान के दरवाजे पहले शूद्रों के लिए बंद कर दिए और बाद में क्षत्रिय, वैश्य जैसे उच्च वर्णीय भी उसमें प्रवेश नहीं कर पाये। अपने ज्ञान को अपने।
    एकाधिकार में रखने के लिए उन्होंने ज्ञान की भाषा ‘संस्कृत’ रखी और उसे ‘गीर्वाण भाषा’ याने देवभाषा कहना शुरू किया। संस्कृत भाषा, वैदिक युग से ही सामान्य जनों के आम व्यव्हार की भाषा नहीं रह गयी थी सो अब ज्ञान-विज्ञान, दर्शन-अध्यात्म, तर्क शस्त्रज्ञान सभी से संबंधित शास्त्र सामान्य जनों की पहुंच से बाहर हो गये। जैन और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मण-वर्चस्व पर कुठाराघात किया, जन्मांतरवाद पर विश्वास करते हुए भी यह कहा कि मानव चाहे तो उत्तरोत्तर आध्यात्मिक ऊंचाई पर चढ़ता हुआ स्वयं तीर्थंकर या बुद्ध बन सकता है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन दोनों धर्मो के आचार्यो ने, स्वयं महावीर और गौतम बुद्ध ने जनभाषा अर्धमागधी और पाली में अपना संदेश जन-जन के बीच विचरण कर फैलाया, उन्हें समझायां कि ‘अप्पो दीप आप भव’ - अपने दीपक स्वयं बनो।
    गौतम बुद्ध का व्यक्तित्व और उनके उपदेश बहुत ही लोकप्रिय और लोकमंगलकारी थे। अहिंसा और करूणा का उपदेश देकर उन्होंने अपने धर्म के द्वार सभी वर्णों, यहां तक कि दासों और स्त्रियों के लिए उन्मुक्त कर दिये। ब्राह्मण-धर्म वैदिक युग में ब्रह्मविदिनियां थी लेकिन बड़े पैमान पर स्त्रियों के सन्यास लेने के कोई उदाहरण हमें प्राप्त नहीं होते जबकि बौद्ध धर्म में बड़े पैमाने पर स्त्रियां भिक्षुणियां बनीं, यहां तक कि स्वयं भगवान बुद्ध ने अपनी पत्नी यशोधरा, सौतेली माता महाप्रजावती और नगरवधू आम्रपाली को दीक्षित होने की अनुमति दी। मार्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को सुदूर श्रीलंका और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में भेजा।
    हालांकि बौद्ध धर्म में भी भिक्षुणी का दर्जा भिक्षु के समकक्ष नहीं था लेकिन आध्यात्म क्षेत्र में इतनी दूर पैठने की अनुज्ञा ही स्त्री के लिए एक बहुत बड़ा मुक्तिदायी अवसर था। बौद्ध भिक्षुणियों-थेरियों द्वारा रचे गये ‘थेरीगान’ आज भी उपलब्ध हैं और स्त्रियों की गहन संवेदनशीलता और रचनात्मकता को प्रतिबिंबित करते हैं।
    बौद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म की तुलना में अधिक लोकतांत्रिक था, जैन धर्म के समान कठोर शारीरिक तपस्या का उसमें विधान नहीं था, स्वर्णिम मध्यम मार्ग को उसने वरीयता दी थी इसलिए बौद्ध समाज की स्त्रियों की स्थिति अन्य समाजों की अपेक्षा कम शोचनीय थी। बौद्ध धर्म, ब्राह्मण धर्म का घोर प्रतिद्वंदी बनकर उभरा इसलिए उसे हर प्रकार से समाप्त करने की कोशिशे हुईं, स्वयं बौद्ध धर्म भी पहले महायान, हीनयान और फिर वज्रयान आदि वर्गो-प्रपंचो में उलझता चला गया और कर्मकांडों के विरोध में जन्मा एक विद्रोही धर्म स्वयं घोर कर्मकांडों में लिप्त होने लगा, धर्मशास्त्रकार तो अवसर की तांक में ही थे, पितृसत्तात्मक समाज भी अपने अधिकार-विभाजन के बारे में सतर्क था ही, बौद्ध धर्म पता नहीं कैसे भारतीय धर्मसाधना के घने जंगल में विलुप्त-सा हो गया, और स्त्रियों के लिए, केवल गृहस्थी संभालने वाली भार्या और पुरूष की कामलिप्सा पूरा करने वाली भोग्या न रहकर आध्यात्म मार्ग की पथिक बनने का-भिक्षुणी-बनने का द्वार फिर से बंद हो गया।
    पौराणाकि युग समाजशात्रियों ने सामान्यतः ई. पू. 200 से ईस्वी सन् 1300-1400 के कालखंड को पौराणिक युग माना है। पुराणों में फिर एक बार सूत्रों, स्मृतियों में विहित अधिकारों और कर्तव्यों और कर्मकांडो को ज्यादा लोकरंजक भाषा और शैली मंे प्रस्तुत किया गया और अब वर्णाश्रम धर्म की पूरी दृढ़ता के साथ पुनर्प्रतिष्ठापना की गयी, पुरोहित वर्ग का वर्चस्व पुनर्स्थापित हो गया, नियम और कड़े हो गये याने स्त्री की पराधीनता पराकाष्ठा पर पहुंच गयी।
    कन्या का विवाह 8-9 वर्ष में या उससे भी पहले कर देना श्रेयस्कर समझा गया। उस उम्र तक गृहकार्य में कुशलता और उससे भी बढ़कर श्वसुरगृह में जाकर वहां के नियमों का विनम्रतापूर्वक पालन करने का प्रशिषण कन्या को दिया जाता था। पातिव्रत्य, स्त्री का सर्वश्रेष्ठ धन था, उसे असिधाराव्रत धारण कर निभाना स्त्री का कर्तव्य था। पति के प्रति एकनिष्ठ होने के लिए पति का अच्छा पुरूष या पति होना अनिवार्य नहीं था। लंपट, दुष्ट, जुआरी, कपटी, नपुंसक पति को भी परमेश्वर मानना स्त्री का कर्तव्य था।
    जीवनसाथी के प्रति एकनिष्ठ रहने की शर्त केवल स्त्री के लिए ही थी। सनातन काल से बहुपत्नी की परंपरा भारत में प्रचलित थी, ऋषि मुनि भी इसमें अपवाद स्वरूप नहीं थे। इसके वेश्या, नर्तकी, रखैलों की सुविधाएं भी पुरूष को उपलब्ध थी। पुरूष को यह भी अधिकार था कि अपनी पत्नी को अनुशासन में रखने के लिए उसे हाथ या छड़ी से पीटे।
    विधवा-विवाह समाप्त हो चुके थे लेकिन स्मृतिकाल में उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि स्वर्गीय पति की स्मृति में वे तापसी-सा जीवन, मृत्यु पर्यंत बितायंेगी जबकि पुराणकाल में पति की चिता में उसे सहगामिनी होने के लिए प्रेरित किया जाता था और सती प्रथा को धार्मिक स्वीकृति दी जाने लगी थी। ‘अग्निुपराण’ कहता है कि ‘भर्ताग्नि या विशेन्नारी सापि स्वर्गमवाप्नुयात्’ अर्थात जो नारी भर्ता के साथ अग्नि में प्रवेश करेगी वह (भर्ता के साथ ही साथ) स्वर्ग प्राप्त करेगी।’ सती  होने के अतिरिक्त स्त्री के लिए भला और क्या मार्ग हो सकता है क्योंकि पति के मरने के बाद उसके लिए और क्या धर्म रह जाता है? सती की महिमा का एक अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन समाजशास्त्री श्रीमती कमला बाई देशपांडे ने अपनी पुस्तक ‘स्त्रियांच्या कायद्याची वाटचाल’ में उद्धृत किया है। पुराणकार कहता हैः
    ‘सती’ होने का पुण्य-फल यह है कि मनुष्य की देह पर जो साढे़ तीन करोड करोम है उतने वर्ष वह स्त्री अपने पति के साथ स्वर्ग में आवास करेगी। अगर पति के पुण्य इतने पर्याप्त न हों कि वह स्वर्ग जा सके तो पत्नी के (सहगमन के) पुण्य से वह स्वर्ग जायेगा। जिस प्रकार संपेरा, सर्प को बिल के अंदर से बलात् खींच निकालता है उसी प्रकार से जो स्त्री पति के साथ सहगमन कर सती होगी है वह उसे नरक से निकालकर स्वर्ग ले जाती है। ब्रह्मघ्न हो, मद्यप हो या कृतघ्न हो, पति कैसा ही पातकी हो, यह सती अपने ‘सती होने के’ पुण्य पर उसे पुनीत करती है। इतना ही नहीं जो दुष्ट स्त्रियां पति का अपमान करती हैं काम, क्रोध, मोह इत्यादि दुर्गुणों की वजह स सदैव पति के विरूद्ध आचरण करती हैं वे भी पतिमरण के वक्त सती हो जायें तो पवित्र होती हैं।
    सती प्रथा का प्राचीनतम प्राप्त उल्लेख ई. पू. 316 का है जब ग्रीक सेनापति एंटीगोनस से लड़ते हुए हिंदु सेनापति केटिअस मारा गया और उसकी एक पत्नी सती हुई। ईसा की पांचवी सदी से यह प्रथा जोर पकड़ने लगी और ग्यारहवीं सदी तक तो बद्धमूल होकर हिंदु धर्म की विशिष्टताओं में परिगणित होने लगी। पहले संभवतः क्षत्रियों मंे ही यह पंरपरा थी, यह पंरपरा चल पड़ी। समग्र भारत में शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जहां किसी न किसी ‘सती मैया का चौरा’ न बना हो।
    निश्चित ही सभी विधवाएं सती नहीं होती थीं। ऐसी अवस्था में उन पर बड़े-बडे़, आज की दृष्टि से अमानवीय बंधन थे। किसी प्रदेश में काले या मटमैले और अधिकांश प्रदेशों में सफेद वस्त्र ही पहनने की उन्हें अनुमति थी। किसी भी प्रकार का आभूषण अलंकार, साज-सज्जा की उन्हें मनाही थी। महाराष्ट्र, मैसूर, कुछ और दक्षिणी प्रांत और बंगाल में उनके रूप को और आकर्षणविहीन बनाने के लिए उनके केशों को मूंड दिया जाता था। विधवाओं को सुरूचिपूर्ण भोजन खाने की मनाही थी क्योंकि उससे उनकी काम-लिप्सा जगने की आशंका थी और ऐसी घोर तपस्यापूर्ण जिंदगी के बावजूद आजीवन ताड़ना और प्रताड़ना सहना ही उनके भाग्य में लिखा हुआ होता था। क्योंकि वे ऐसे ‘फूटे कपार लेकर आयी थी कि अपने भतार को ही खा गयी थी।’
    समाजशास्त्रियों की मान्यता है कि पुराणकाल में एक क्षेत्र में स्त्री की स्थिति बेहतर थी और वह यह कि अपने ‘स्त्रीधन’ पर उनका अधिकार धर्मशास्त्रकारों को मान्य था। पर यह समाल मन में उठे बगैर नही रहता कि जिस निरीह बच्ची की शादी 8-9 साल की उम्र में ही कर दी जाती हो, जो जिंदगी भर निरक्षर और अज्ञानी रखी जाती हो, जिससे अपने पति के प्रति अंधनिष्ठाा की अपेक्षा की जाती हो, जिसे कौमार्य, यौवन और वृद्धि तीनों ही अवस्थाओं में स्वतंत्र और स्वायत रहने का अधिकार न हो, जिसे घर की दहलीज तो दूर की बात है महिलाओं के रहने के हिस्से से पुरूषों की बैठक तक आने की इजाजत तक न हो, ऐसी स्त्री अपने ‘स्त्रीधन’ के स्वामित्व को किस हद तक संभाल पाती रही होगी!
    पुरूणोत्तर युग    यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सूत्रों, टीकाओं, भाष्यों और पुराणों का युग कालक्रमानुसार एक के बाद नहीं आया है। करीब-करीब समानातंर ही उनकी रचना होती रही है केवल प्रभाव की दृष्टि से कभी एक महत्वपूर्ण हो उठता है कभी दूसरा और फिर भारत जैसा राजनीतिक रूप से सदैव ही बंटे हुए और सामाजिक रीति-रिवाज के तौर पर जातीय परंपराओं में बंधे हुए विराट देश में धर्मशास्त्रकारों को एकरूप मान्यता कभी नहीं मिली है। फिर भी 18वीं सदी तक भी टीकाओं और भाष्यों की रचना होती रही और अपने-अपने स्तर पर वे सामाजिक जीवन को प्रभावित और संचालित करते रहे।
    10वीं सदी के आसपाल से भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन इस्लाम धर्म को मानने वाले अफगानी, अरबी, तुर्की, फारसी हमलावारों का आगमन था। यो 7वीं सदी से सिंध पर मुहम्मद-बिन-कासिम के आक्रमण से ही इस्लाम की जानकारी भारतीयों को मिलने लगी थी लेकिन उसका पहला बड़ा प्रभाव महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के आक्रमण से पड़़ा। बाद में मुहम्मद गोरी ने अपने गुलाम कुतुबुद्यीन ऐबक को भारत में अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा, उसने दिल्ली में गुलाम वंश के शासन की शुरूआत की और 1206 से लेकर 1857 में ब्रिटिश महारानी सुल्तानों, बादशाहों को कब्जा रहा। भारत में सदियों से विभिन्न जातियों, संप्रदायों, नस्लो के लोग हमलावर, सौदागर या शरणार्थी अलग जाति या समुदाय बनकर बस गये और जो लोग लौट नही गये उन्होंने यहां कि किसी न किसी धर्मविश्वास को अपने मूल धर्म के साथ मिलाकर अपना लिया। यवन, शक, कुशान, हूण, आभीर आदि जातियों ने इसी प्रकार से वैष्णव, बौद्ध या जैन धर्म अपनाया। लेकिन इस्लाम धर्मावलंबियों के साथ ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि वे पहले ही से एक सुदृढ़ आस्था और अनुशासनबद्ध धर्माचरण और सामाजिक आचार-विचार को लेकर हिंदुस्तान  आये थे और अधिकांशतः राजनीतिक तौर पर विजयी रहे थे।
    इस्लाम में औरतों की कानूनी स्थिति भारतीय महिला से बेहतर थी। वहां पर शादी, सामाजिक अनुबंध माना जाता है न कि धार्मिक संस्कार इसलिए वहां शादी काजी करवाता है न की मुल्ला मौलवी। भारतीय हिंदु समाज में विवाह विच्छेद का प्रावधान पुरूष के लिए भी नहीं के बराबर है। स्त्री के लिए तो वह मानो है ही नहीं। हिंदु समाज में पति, पत्नी को कानूनी तौर पर नहीं त्यागता, वह तो सिर्फ उसे त्याग देता हैं और अपने लिए दूसरा विवाह रच लेता हैं। हिंदू स्त्री विधवा होने पर भी जब दूसरी शादी नहीं कर सकती तो पति के जिंदा रहते हुए दूसरा पुरूष प्राप्त करना तो असंभव ही था। इस्लाम में भी पुरूष के ही अधिकार ज्यादा है और तलाक का कानून उसके लिए ज्यादा नर्म है और स्त्री के लिए ज्यादा कठोर लेकिन फिर भी तलाकशुदा स्त्री की, विधवा स्त्री की फिर से शादी हो सकती है। इसलिए विधवा को विद्रूप करने का या ‘सती’ बनने की प्रेरणा देने का इस्लाम में चलन नहीं है। इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर मुहम्मद साहब ने स्वंय ऐसी स्त्रियों से विवाह कर उन्हें सामाजिक सम्मान और आश्रय प्रदान किया था जो किसी नकिसी वजह से पतिविहीन हो चुकी थी।
    इस्लाम में स्त्री को, पुरूष के समकक्ष तो नहीं, लेकिन फिर भी कुछ अंशो में पिता और पति की संपत्ति में हक मिलता है। इस्लाम स्त्री की पतिनिष्ठा और चरित्र की पावनता के प्रति उतना ही कठोर और सतर्क है जितना की केाई भी पितृसत्तात्मक समाज होता है। लेकिन अगर अपने चरित्र को पाक-साफ रखते हुए कोई स्त्री अविवाहित भी रह जाती है। तो उसे घर-परिवार के लिए कलंक या नरकवास का कारण नहीं माना जाता। कई मुसलमान और मुगल शाहजादियों के उदाहरण है जिन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया लेकिन उन्हें राजकीय सुख-सुविधा और सम्मान से वंचित नहीं किया गया।
    भारतीय हिंदु समाज लगभग एक हजार वर्ष तक इस्लामी समाज के संपर्क में रहा। दोनों के संघर्ष-समन्वय से एक गंगा-जमुनी संस्कृति का भी निर्माण हुआ। कला, शिल्प साहित्य में एक युगांतर आया लेकिन स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। उलटे हिंदू धर्म का वर्चस्व पूर्ववत नही रहा इसलिए धर्मशास्त्रकार और ज्यादा कठोर हो गये। मुसलमानों के भारत में शास्क बन जाने की प्रक्रिया को केवल राजनैतिक प्रभावहीन किया जा सका और न ही अस्तित्वहीन। हिंदू समाज की तथाकथित ‘सहिष्णुता’ भी यहां पर कमजोर साबित हुई। हिंदू समाज ने मुसलमानी समाज से उसके कोई विधायक तत्व न लेकर स्त्रियां को और बंधन में जकड़ने वाली पर्दा-प्रथा को अपना लिया। प्राचीन काल में कभी-कभी दिखनेवाला ‘अवगुंठन’ अब ‘घूंघट’  बनकर स्त्रियों के चेहरों पर आ गया। हालांकि सारे भारत में घूंघट की प्रथा नहीं है, दक्षिण में तो बिल्कुल ही नहीं है और महाराष्ट्र में भी मुसलमानों से राजनीतिक संपर्क में आये हुए ‘मराठा’ आदि समुदायों में ही है लेकिन समूचे उत्तरी भारत और राजस्थान में घर के अंदर और घर से बाहर जाते हुए कड़ा पर्दा रखना पड़ता है। स्त्रियों के लिए यह गौरव की बात समझी जाती है कि उनके पांव के नाखून तक किसी पराये मर्द ने नहीं देखे और उन्होंने अपने घर की डयोढ़ी सिर्फ दो बार लांघी थीख् एक बार तब जब पितृग्रह से उनकी डोली ड्योढ़ी लांघकर पतिग्रह में उतारी गयी थी और दूसरी बार तब जब उनकी अर्थी इस घर से उठी थी और ड्योढ़ी लांघकर श्मशान ले जायी गयी थी!

सौजन्य  - अंगिरापुत्र पत्रिका

  डॉ राजम नटराजन पिल्लै

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